अधिकारों से वंचित करके अवकाश पर भेजे गये केन्द्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक आलोक कुमार वर्मा ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट में दलील दी कि उनकी नियुक्ति दो साल के लिए की गयी थी और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। यहां तक कि उनका तबादला भी नहीं किया जा सकता। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई से आलोक वर्मा को निदेशक के अधिकार से वंचित करने के बाद किये गये सभी तबादलों का रिकार्ड रखने को कहा है। सीबीआई के निदेशक आलोक कुमार वर्मा की याचिका पर कोर्ट पांच दिसंबर को दोबारा सुनवाई करेगा।
दो बजे शुरू हुई बहस में दुष्यंत दवे ने कहा कि सीबीआई के फैसलों में सीवीसी या फिर सरकार जैसे किसी तीसरे पक्ष का दखल नहीं होना चाहिए। दुष्यंत के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे की ओर से कपिल सिब्बल ने बहस की। सिब्बल ने कहा कि सीवीसी और सरकार एक्ट की अनदेखी और मनमानी कर सीबीआई निदेशक को छुट्टी पर नहीं भेज सकती। नियुक्ति और हटाने या निलंबन के आदेश सिर्फ सेलेक्शन कमेटी कर सकती है।
ये मामला कमेटी के पास भेजना था। अगर ऐसे फैसलों और प्रक्रिया को हम मंज़ूर करेंगे तो सीबीआई की स्वायत्तता का क्या मतलब रह जाता है? अगर कमेटी के अधिकार सरकार हथिया लेगी तो जो आज सीबीआई निदेशक के साथ हो रहा है, वही कल सीवीसी और ईसीआई के साथ भी हो सकता है।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ के समक्ष वर्मा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरीमन ने कहा कि उनकी नियुक्ति एक फरवरी, 2017 को हुई थी और ‘‘कानून के अनुसार दो साल का निश्चित कार्यकाल होगा और इस भद्रपुरूष का तबादला तक नहीं किया जा सकता।’’
उन्होंने कहा कि केन्द्रीय सतर्कता आयोग के पास आलोक वर्मा को अवकाश पर भेजने की सिफारिश करने का आदेश देने का कोई आधार नहीं था। नरीमन ने कहा, ‘‘विनीत नारायण फैसले की सख्ती से व्याख्या करनी होगी। यह तबादला नहीं है और वर्मा को उनके अधिकारों तथा कर्तव्यों से वंचित किया गया है।’’
सुप्रीम कोर्ट ने देश में उच्चस्तरीय लोक सेवकों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच से संबंधित मामले में 1997 में यह फैसला सुनाया था। यह फैसला आने से पहले जांच ब्यूरो के निदेशक का कार्यकाल निर्धारित नहीं था और उन्हें सरकार किसी भी तरह से पद से हटा सकती थी।
परंतु विनीत नारायण प्रकरण में शीर्ष अदालत ने जांच एजेन्सी के निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो साल निर्धारित किया ताकि वह स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। नरीमन ने जांच ब्यूरो के निदेशक की नियुक्ति और पद से हटाने की सेवा शर्तों और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान कानून 1946 के संबंधित प्रावधानों का जिक किया।
इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही नरीमन ने कहा कि न्यायालय किसी भी याचिका के विवरण के प्रकाशन पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता क्योंकि संविधान का अनुच्छेद इस संबंध में सर्वोपरि है। उन्होंने इस संबंध में शीर्ष अदालत के 2012 के फैसले का भी हवाला दिया। पीठ ने सीवीसी के निष्कर्षो पर आलोक वर्मा का जवाब कथित रूप से मीडिया में लीक होने पर 20 नवंबर को गहरी नाराजगी व्यक्त की थी।
यही नहीं, कोर्ट ने जांच ब्यूरो के उपमहानिरीक्षक मनीष कुमार सिन्हा के अलग से दायर आवेदन का विवरण भी प्रकाशित होने पर अप्रसन्नता व्यक्त की थी। नरीमन ने कहा, ‘‘यदि मैं कल रजिस्ट्री में कुछ दाखिल करता हूं तो इसे प्रकाशित किया जा सकता है।’’ उन्होंने कहा कि यदि कोर्ट बाद में प्रतिबंध लगाती है तो ऐसी सामग्री का प्रकाशन नहीं किया जा सकता।
नरीमन ने जब सनसनीखेज आरोपों वाले कुछ मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग स्थगित करने के लिये नियमों में बदलाव का सुझाव दिया तो जांच एजेन्सी के उपाधीक्षक ए के बस्सी की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि उन्हें इस पर गहरी आपत्ति है। बस्सी ही जांच ब्यूरो के विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ रिश्वत के मामले की जांच कर रहे थे परंतु बाद में उनका तबादला कर दिया गया था।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि कोर्ट का इस तरह का कोई आदेश देने की मंशा नहीं है। धवन ने कहा, ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पिछली तारीख पर आपने कहा कि हमारे में से कोई भी सुनवाई के योग्य नहीं है। प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘यह दुर्भाग्यपूर्ण हो सकता है परंतु हम आज आपको सुनेंगे।
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