1955 के आसपास जब भारत के प्रख्यात समाजवादी नेता व चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया ने ‘भारत-पाक महासंघ’ बनाने का विचार रखा था तो तत्कालीन जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय ने भी इसका समर्थन किया था। इसकी वजह यह थी कि पाकिस्तान में 1954 में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर इसे एक इकाई मानते हुए आम चुनाव हुए थे और इन चुनावों में इस देश की किसी भी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हुआ था। मुस्लिम लीग, अवामी लीग व रिपब्लिकन पार्टी ने मिलकर सांझा सरकार चौधरी मोहम्मद अली के नेतृत्व में बनाई थी। 1951 मंे इस देश के पहले प्रधानमन्त्री लियाकत अली खां की हत्या के बाद पाकिस्तान में लोकतन्त्र की यह मजबूत शुरूआत मानी जा रही थी और डा. लोहिया को उम्मीद थी कि दोनों देशों की लोकतान्त्रिक ताकतें मिलकर केवल आठ साल पहले हुए बंटवारे की विभीषिका में झुलसे हुए लोगों का दुख-दर्द दूर कर सकती हैं और दोनों देशों के सम्बन्ध ‘अमेरिका व कनाडा’ की तर्ज पर विकसित किये जा सकते हैं।
डा. लोहिया के तर्क इतने वजनदार थे कि धुर विरोधी जनसंघ पार्टी के नेता दीनदयाल उपाध्याय को भी उन्हें स्वीकार करना पड़ा था क्योंकि डा. लोहिया का कहना था कि महासंघ अन्ततः समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के अन्य देशों को भी अपने में समाकर भारत की प्राचीन आर्थिक ताकत का पुनर्जागरण करने में कामयाब हो सकता है परन्तु इसके लिए सबसे पहले भारत-पाक महासंघ का बनना जरूरी है क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण बांग्ला व पंजाबी सांस्कृतिक एकता को भंग करने की कीमत पर किया गया है। पाकिस्तान में उस समय रिपिब्लकन पार्टी जैसा राजनैतिक दल इस देश के गरीब व कमजोर तबको में खासा लोकप्रिय था। इसकी राजनीति आर्थिक विषमता की समाप्ति पर टिकी हुई थी और अवामी लीग पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की बंगाली संस्कृति की अस्मिता की संरक्षक मानी जाती थी। अतः डा. लोहिया को लगा था कि बंटवारे की मजहबी उन्मादी राजनीति के भंवर से पाकिस्तान बाहर निकल चुका है और अब उन समस्याआें से रूबरू हो रहा है जो उसकी हकीकत है, परन्तु दुर्भाग्य यह रहा कि पाकिस्तान लोकतन्त्र की उन जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ रहा जिसमें जनता की अपेक्षाएं सर्वाेपरि स्थान रखती हैं और यह सत्ता के स्वार्थों के बोझ से ढह गया और 1956 में लागू हुए इसके संविधान ने इसे एक इस्लामी देश घोषित करने के साथ ही तानाशाही रूढि़वादिता की ओर इस तरह धकेला कि पश्चिमी पाकिस्तान की सियासी ताकतों ने पूर्वी पाकिस्तान की लोकप्रिय सियासी तंजीम अवामी लीग व रिपब्लिकन पार्टी को प्रशासन में जगह बनाने की इजाजत देना ही पसन्द नहीं किया और दूसरी तरफ इन पार्टियों ने पश्चिमी पाकिस्तान की रूढ़ीवादी ताकतों के सामने घुटने टेकना गवारा नहीं किया।
इससे पाकिस्तान के लोकतन्त्र की बुनियाद इस तरह हिली कि 1958 में खुद इस देश के पहले चुने हुए राष्ट्रपति ‘सिकन्दर मिर्जा’ ने अपना कार्यकाल बढ़ाते हुए मार्शल लाॅ लागू कर दिया और अपनी ही पार्टी के प्रधानमन्त्री ‘सर फिरोज खां नून’ को बर्खास्त कर दिया। इस फैसले से पाकिस्तान पूरी तरह राजनैतिक अराजकता के दौर में आ गया जिसका फायदा सिकन्दर मिर्जा द्वारा ही नियुक्त मार्शल लाॅ प्रशासक जनरल अयूब खां ने उठाते हुए सिकन्दर मिर्जा को ही अपदस्थ करके खुद सत्ता संभाल ली। इसके बाद का पाकिस्तान फौजी बूटों के तले रुन्दा हुआ मुल्क बनता चला गया और इसका ईमान सिर्फ हिन्दोस्तान की मुखालफत होता गया। अयूब खां को अमेरिका ने अपने कन्धे पर बिठा कर भारत विरोध का मुखौटा बना डाला और भारतीय उपमहाद्वीप में सामरिक शस्त्रों की होड़ को बढ़ावा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी परन्तु पं. नेहरू के जीवित रहते पाकिस्तान किसी भी प्रकार की गुस्ताखी करने की जुर्रत नहीं कर सका बावजूद इसके कि 1962 मंे भारत को चीन से पराजय का मुंह देखना पड़ा था परन्तु उनकी मुत्यु होने पर श्री लालबहादुर शास्त्री के प्रधानमन्त्री बनते ही पाकिस्तान ने कश्मीर का राग छेड़कर भारत पर हमला बोल डाला और जवाब में मुंह की खाई। इसके बाद सभी जानते हैं कि किस प्रकार स्व. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान को तोड़ डाला और बांग्लादेश का उदय हुआ व इसके एक लाख के लगभग सैनिकों ने ढाका में आत्मसमर्पण किया।
यह पूरी कहानी लिखने का खास मकसद यह है कि किन्हीं भी दो देशों के बीच संबन्धों की मधुरता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि उनकी हुकूमत में वहां की जनता की भूमिका क्या है? डा. लोहिया ने जब 1955 में भारत-पाक महासंघ बनाने का प्रस्ताव रखा था तो उसके पीछे मुख्य कारण यह था कि उस दौर में पाकिस्तानी जनता अपनी सरकार बनाने के लिए खुद मुख्तार थी और उसकी वोट की ताकत से बनी सरकार को उसकी इच्छा और अपेक्षा का सम्मान करना जरूरी शर्त थी मगर 1958 में ही पाकिस्तान में ये परिस्थितियां समाप्त हो गईं और उसके बाद से लेकर अब तक ‘रावी नदी’ में इतना पानी बह चुका है कि दोनों देशों में कई युद्ध भी हो चुके हैं और पाकिस्तान ने 1989 से भारत मंे आतंकवाद फैलाने की नीति भी जारी कर रखी है। बेशक आतंकवाद को पनपाने मंे यहां की फौज की मुख्य भूमिका रही है जिसने दहशतगर्द तंजीमों को अपनी खास बटालियन समझ रखा है मगर असल सवाल यह है कि इससे पाकिस्तान की जनता को क्या हासिल हुआ है और एक मुल्क के तौर पर उसकी हैसियत में क्या फर्क आया है? बेशक यह एटमी ताकत से लैस मुल्क हो गया है मगर इसके साथ ही इसकी हैसियत एक एेसे मुल्क के तौर पर दुनिया में उभरी है जिसमें दहशतगर्दों की खुली पनाहगाहें मौजूद हैं। इस हकीकत ने पाकिस्तान को एटमी ताकत से पुरजोश दहशतगर्दों का एेसा मुल्क बना दिया है जिसके एटम बम का बटन इसकी फौज के जनरल के हाथ में है और यह फौज दहशतगर्दों को अपना बायां हाथ मानती है।
अतः करतारपुर साहिब गुरुद्वारे के लिए भारत से मार्ग का शिलान्यास करते हुए पाक प्रधानमन्त्री इमरान खान ने जिस प्रकार से भावुकता दिखाते हुए सम्बन्ध सुधारने की उत्सुकता जताई है उसे हकीकत की तराजू पर तोलने की जरूरत है। इस समारोह को लेकर भी जिस प्रकार की राजनीति की जा रही है उसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसमंे शिरकत करने के लिए भारत की सरकार के दो मन्त्री सरकारी हैसियत में ही गये थे। इमरान खान ने जब कश्मीर मुद्दे का जिक्र करतारपुर साहब समारोह में किया था तो ये दोनों मन्त्री मूकदर्शक बने चुपचाप क्यों बैठे रहे? पाकिस्तान में मौजूद खालिस्तान समर्थक गोपाल सिंह चावला ने नवजोत सिंह सिद्धू के साथ भी फोटो खिंचवाये और हरसिमरत कौर व हरदीप पुरी के साथ भी और भारत के गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चेयरमैन के साथ भी। ध्यान रखा जाना चाहिए यह कार्यक्रम सरकारी था। इसीलिए इमरान खान को कश्मीर का हवाला देने से पहले दहशतगर्दी का हवाला देना चाहिए था और साफ करना चाहिए था कि दहशतगर्द इंसानियत के दुश्मन हैं।
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