Sunday, March 31, 2019

सफेद हाथी बने दिल्ली के स्टेडियम

नई दिल्ली : देश मे भले ही खेलों के प्रति रुझान बढ़ रहा है और अधिकाधिक बच्चे खेलों मे रूचि ले रहे हैं लेकिन देश की राजधानी दिल्ली आज भी सुस्त चाल चल रही है या प्रशासनिक खामियों के चलते दौड़ मे पीछे रह गई है। वर्ष 1951 में जब नई दिल्ली ने पहले एशियाई खेलों का आयोजन किया था तो यह माना जा रहा था कि आने वाले सालों मे भारत की राजधानी दुनियाँ का खेल हब बन जाएगी, लेकिन साल दर साल यह शहर सबसे ज़्यादा प्रदूषित और गंदगी के ढेर मे तब्दील होता चला गया।

खेलों के लिए जो सुविधाएँ पहले एशियाड मे जुटाई गई थीं, आगामी तीस सालों मे उनमे कोई सुधार नहीं हुआ। बड़ा बदलाव 1982 के दिल्ली एशियाड मे देखने को मिला। जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम, इंदिरा गाँधी स्टेडियम और तालकटोरा तरनताल के निर्माण और ध्यानचन्द नेशनल स्टेडियम, शिवाजी स्टेडियम और कुछ अन्य स्टेडियमों को नये सिरे से सजाने सँवारने के बाद उम्मीद जगी कि दिल्ली मे खेलों के लिए माहौल बदलेगा और देश की राजधानी कई ओलंपिक और वर्ल्ड चैम्पियन पैदा कर पाएगी।

लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि लाखों-करोड़ों के स्टेडियम सिर्फ़ सफेद हाथी बन कर रह गये। शुरुआती वर्षों में इन स्टेडियमों को आम खिलाड़ी के लिए खोलने का नाटक रचा गया। धीरे-धीरे सरकार और उसकी मशीनरी की चाल बदल गई और तमाम स्टेडियम खिलाड़ियों की पकड़ से बाहर होते चले गये। फिर आए 2010 के कामनवेल्थ खेल और फिर से स्टेडियमों को सजाने सँवारने का काम शुरू हुआ। करोड़ों-अरबों खर्च किए गये।

आरोप लगे, मुक़दमे चले और भारतीय खिलाड़ी के हिस्से फिर से हताशा और निराशा आई। केंद्र और दिल्ली की सरकारें या खेल मंत्रालय कोई भी दावा करें लेकिन आज भी दिल्ली के खिलाड़ी के पास खेलने के लिए मैदान नहीं हैं। हॉकी के लिए स्थापित शिवाजी और नेशनल स्टेडियम खिलाड़ियों के लिए बंद पड़े हैं तो अंबेडकर और नेहरू स्टेडियम मे फुटबॉल खेलना संभव नहीं हो पाता। अन्य स्टेडियम भी खिलाड़ियों की पहुँच से दूर होते जा रहे हैं। तो फिर दिल्ली खेले तो कहाँ?

(राजेंद्र सजवान)



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