कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने गोवा के मुख्यमन्त्री श्री मनोहर पर्रिकर से भेंट करने के बाद धमाका किया है कि फ्रांस से हुए राफेल लड़ाकू विमान सौदे की जानकारी उन्हें नहीं दी गई थी। वैसे यह मुलाकात अपने आप में ही हैरत में डालने वाली है। सभी को ज्ञात है कि श्री पर्रिकर गोवा के मुख्यमन्त्री बनने से पहले मौजूदा सरकार में रक्षामन्त्री थे और उन्हीं के पद पर रहते हुए अप्रैल 2015 में 36 राफेल विमानों की सीधे खरीद की घोषणा हुई थी। सवाल उठना लाजिमी है कि यदि रक्षामन्त्री को ही विमानों की खरीदारी के बारे में मालूम नहीं था तो रक्षा खरीद समिति ( डिफेंस एक्वारिंग कमेटी-डीएसी ) को इस बारे में किस प्रकार जानकारी हो सकती थी जबकि मनोहर पर्रिकर ने पत्र लिखकर राहुल गांधी के बयान को झुठलाया है और उन पर बैठक का राजनीतिक लाभ उठाने का आरोप लगाया है। सवाल यह बिल्कुल नहीं है कि राफेल विमानों की गुणवत्ता कैसी है क्योंकि 2007 से चली इसकी खरीद की प्रक्रिया के तहत हर स्तर पर इसकी विशेषज्ञों ने जांच परख की थी और नतीजा निकाला था कि देश की वायु सेना की जरूरतों को पूरा करने के लिए ये विमान पूरी तरह उपयुक्त हैं। इसके साथ जुड़ा हुआ सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि भारत के लोकतन्त्र में सरकार एक सतत प्रक्रिया होती है।
विदेशों में भारत की जिस भी राजनैतिक दल की सरकार होती है वह केवल ‘भारत सरकार’ होती है। हम भारतीयों के लिए मनमोहन या मोदी सरकार हो सकती है मगर विदेशों की सरकारों के लिए दिल्ली की कोई भी चुनी हुई सरकार केवल संप्रभु देश भारत की एेसी सरकार होती है जो अपने पिछले किये गये वादों और वचनों पर दृढ़ता के साथ अमल करने पर पाबन्द रहती है। अतः यह मुद्दा केवल किताबी बहस का नहीं है कि भारत ने 126 लड़ाकू विमानों की अंतर्राष्ट्रीय निविदाएं बदस्तूर जारी रहते हुए क्यों अचानक अप्रैल 2015 में सीधे 36 राफेल विमानों की खरीदारी का सौदा राफेल विमान बनाने वाली कम्पनी दासोल्ट के साथ कर लिया। यदि इस सौदे की जानकारी तत्कालीन रक्षामन्त्री मनोहर पर्रिकर तक को नहीं थी इस बात पर यकीन करना मुश्किल है। कैसा दुखद संयोग है कि वाजपेयी सरकार के रक्षामन्त्री रहे श्री जार्ज फर्नांडीज का निधन कल ही हुआ है। उनके समाजवादी तेवरों के संघर्षमय जीवन को देशवासी सलामी दे रहे हैं। उन्होंने अपनी जनमूलक राजनीति से न जाने कितने नौजवानों को प्रभावित किया था और श्री शरद यादव जैसे आज के नेताओं को प्रेरणा दी थी मगर हमें याद रखना चाहिए कि जार्ज फर्नांडीज जैसा नेता भी रक्षामन्त्री रहते रक्षा खरीद प्रकरण में इस तरह फंसा था कि उन्हें अपने पद से इस्तीफा तक देना पड़ा था और ‘तहलका मामले’ में जांच का सामना करना पड़ा था। यह भी रिकार्ड में दर्ज हो चुका है कि किस प्रकार श्री फर्नांडीज को पुनः मन्त्रिमंडल में शामिल करने के श्री वाजपेयी के फैसले का तत्कालीन विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने विरोध किया था।
किसी मन्त्री के विरोध में संसद का बहिष्कार करने का अभी तक का यह सबसे लम्बा रिकार्ड है जबकि श्री फर्नांडीज भारत के ऐसे जमीनी सफल राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने रेहड़ी-पटरी वालों से लेकर रेलवे के कर्मचारियों की संगठन क्षमता के बूते पर सत्ता के ऊंचे-ऊंचे सिंहासनों को हिला दिया था किन्तु वह तहलका प्रकरण में ऐसे फंस गये थे कि उनकी संघर्ष की सारी पूंजी देखते-देखते ही लुट गई। हालांकि जब 2004 में वाजपेयी सरकार के बाद केन्द्र में डा. मनमोहन सिंह की सरकार में रक्षा मन्त्री पद पर प्रणव मुखर्जी बैठे तो उन्होंने पूरे मामले की गहराई से छानबीन करने पर पाया कि श्री फर्नांडीज के खिलाफ कुछ नहीं है जबकि इसी वर्ष हुए चुनावों में कारगिल युद्ध में सेना के शहीद हुए जवानों के लिए ताबूत व जूते तक खरीदने में भ्रष्टाचार की कहानियां तैर रही थीं। घपला हुआ था क्योंकि भारत के लेखा महानियन्त्रक ने अपनी रिपोर्ट में इस बारे में चिन्ता व्यक्त की थी मगर जार्ज साहब का उससे लेना-देना नहीं था मगर तब भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण काे टीवी पर ही रक्षा सौदे में मदद करने के लिए कथित दलालों से दो लाख रुपये लेते लोगों ने देखा था और अपना सिर पीटा था मगर राफेल विमान सौदे में मुद्दा बिल्कुल दूसरा है। यह एक सरकार द्वारा पूरी जांच-परख के बाद सिरे चढ़ाये जाने को तैयार सौदे को रद्द करके नये सिरे से नए तरीके से नये सौदे का मामला है।
मामला वायुसेना की रक्षा जरूरतों का था और इसके लिए भारत को तकनीकी रूप से भविष्यगत तैयार करने का था जिसकी वजह से सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. को इन विमानों को भारत में ही तैयार करने की गरज से बीच में डाला जा रहा था। यह सौदा दासोल्ट से ही होना था फर्क सिर्फ यह था कि 126 विमानों में से 18 या एक स्क्वैड्रन विमान तैयार हालत में तुरन्त खरीदे जाने थे और बाकी का उत्पादन दासोल्ट कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. के साथ मिलकर भारत में करती। जाहिर तौर पर इसकी जानकारी उस समय के रक्षामन्त्री मनोहर पर्रिकर को थी। भारत की सरकार में रक्षामन्त्री की भूमिका बहुत स्पष्ट है कि उस पर देश की सीमाओं की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी होती है और सेना के तीनों अंग उसके प्रति इस प्रकार जवाबदेह होते हैं कि वह संसद के सामने अपनी जिम्मेदारी की कैफियत पेश कर सके। यह बेमिसाल व्यवस्था हमारे संविधान निर्माता इस प्रकार करके गये हैं कि भारत का पूरा लोकतन्त्र हमेशा इसके लोगों के सामने ही जवाबदेही करता रहे।
from Punjab Kesari (पंजाब केसरी) http://bit.ly/2DJOKml
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